भारत में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ चल रहे देशव्यापी विरोध-प्रदर्शनों की गूंज अब विदेश में भी सुनी जाने लगी है। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्जियन, वॉल स्ट्रीट जर्नल जैसे चर्चित अंतरराष्ट्रीय अखबार जहां इन विरोध-प्रदर्शनों को अपनी सुर्खियां बनाने लगे हैं, वहीं ऑस्ट्रेलिया, रूस जैसे देशों ने अपने-अपने नागरिकों को भारत यात्रा पर एहतियात बरतने को कहा है। ब्रिटेन में भी आलोचनात्मक स्वर सुनाई दिए हैं। इन सबसे हमारे यहां का एक तबका कहने लगा है कि इस नए कानून के कारण वैश्विक समुदाय में भारत की उदार छवि को धक्का लगा है। पर क्या वाकई ऐसा है? तमाम वैश्विक मंचों पर भारत एक धर्मनिरपेक्ष और उदार लोकतंत्र माना जाता रहा है। यहां बेशक सामाजिक विषमताएं रही हैं और वक्त-बेवक्त जातिगत व सामाजिक तनाव सतह पर आए हैं। लेकिन 1991 के बाद, खासतौर से जिस तरह अमेरिका, जापान या अन्य देशों के साथ हमारे रिश्ते सुधरे, उसका व्यापक असर पड़ा। पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक प्रगति के मामले में भारत की साख दुनिया भर में बढ़ी है। हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि एक वैश्विक गांव में उपभोक्ता वर्ग काफी मायने रखता है, और इस मामले में भारत काफी संपन्न देश है। फिर, बौद्धिक व तकनीकी कुशलता के लिहाज से भी भारतीय दुनिया भर में सम्मान पा रहे हैं। यही कारण है कि दूसरे देशों को यह फर्क नहीं पड़ता कि हम अपने नागरिकों की पहचान के लिए कौन सा रास्ता अपनाते हैं या कैसे दस्तावेज उन्हें सौंपते हैं। असम में जब राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बना, तब भी उसे भारत का आंतरिक मसला माना गया। जब कश्मीर की सांविधानिक स्थिति बदली गई, तब भी विश्व की यही सोच थी। और अब, जब नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर देश में बवाल मचा है, तब भी कूटनीतिक नजरिए से वैश्विक ताकतें इसे कोई खास तवज्जो नहीं दे रही हैं। भारत ही नहीं, इस तरह की प्रक्रिया तमाम राष्ट्रों में अपनाई जाती है। यरोप के अनेक देशों में नागरिकता को लेकर अपने नियम हैं। सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को लेकर भी अलग-अलग देशों में अलग-अलग प्रावधान हैं। किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में राजनीतिक दल अपनी बातें चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल करते हैं, और फिर यदि उन्हें बहुमत मिलता है और वे सत्ता में आते हैं, तो घोषणा-पत्र के वादों को अमल में लाते हैं। इसके बाद भी यदि किसी समूह या व्यक्ति को स्पष्टीकरण की जरूरत महसस होती है, तो वह सर्वोच्च अदालत में जाता है। तमाम देशों में यही चलन है। अपने यहां भी इससे अलग प्रक्रिया नहीं अपनाई गई। नागरिकता का नया प्रावधान भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र का हिस्सा था। इसमें जिनको भी आपत्ति रही, वे सुप्रीम कोर्ट में गए हैं। एक लिहाज से यह सब कुछ सांविधानिक मर्यादाओं के तहत हुआ। ये बातें दूसरे देशों की सरकारें समझती हैं। वहां के शैक्षणिक संस्थान भी परिस्थितियों को समझ रहे हैं। मगर गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के कुछ खास समूह हैं, जो अपनी वैश्विक भूमिका के लिए आलोचनात्मक सुर अपनाते हैं। ऐसे संगठन खुद का अपने देश का भौगोलिक सामाआ से पर समझत है। पूरी दुनिया का जिम्मेदारी खुद ओढ़कर चलना पसंद करते हैं। कई देशों की राजनीतिक संस्थाएं इन्हें महत्व नहीं देती, फिर भी वैश्विक मसलों में उनकी दखलंदाजी जारी रहती है। विकासशील देश खासतौर से इनके निशाने पर होते हैं। यही वजह है कि भारत में चल रहे विरोध-प्रदर्शनों को लेकर ये संगठन ज्यादा मुखर है। हमें कथित तौर पर और मानवीय बनाने की इस मुहिम में मीडिया उनका हथियार बनता है। चूंकि लोकतांत्रिक देशों में मीडिया स्वतंत्र होता हआर लोकतंत्र क चाथ स्तभक रूप म वह अपना जिम्मदारया निभाता है, इसलिए उसके माध्यम से ऐसे गैर-सरकारी संगठन अपनी बातें आसानी से लोगों के सामने रखने में सफल होते हैं। रही बात पड़ोसी मुल्कों की, तो हमें घेरने के लिए पाकिस्तान सबसे ज्यादा सक्रिय रहता है। कश्मीर से जब अनुच्छेद 370 और 35-ए निरस्त किया गया था, तब भी उसने तमाम वैश्विक मंचों पर हमारे खिलाफ आवाज उठाई थी। कुछ इस्लामी देश उसके प्रभाव में जरूर आए थे, मगर व्यापक तौर पर उसे मुंह की खानी पड़ा। इस बार भी चीन के साथ मिलकर वह हमारे खिलाफ माहौल बनाने में जुटा है। मगर सुखद बात यह है कि इस बार भी अमेरिका जैसे देशों ने उसे टका-सा जवाब दे दिया है। इन देशों का स्पष्ट मानना है कि अपनी भौगोलिक सीमा में नागरिकता को परिभाषित करने का अधिकार भारत के पास ही है। कोई दूसरा देश इसमें दखल नहीं दे सकता। इसी तरह, बांग्लादेश से हमारे मजबूत होते रिश्ते का यह असर है कि पहले ढाका को तरफ से बेशक यह दावा किया गया कि बांग्लादेशी भारत में फर्जी तरीक से मौजूद नहीं हैं, लेकिन अब ऐसे बयान भी सामने आ रहे हैं कि अगर भारत में फर्जी नागरिक मिलते हैं, तो उन्हें बांग्लादेश वापस ले सकता है। साफ है, इन विराध-प्रदशना से भारत का छाव पर काई असर नहीं पड़ा है। यही वजह है कि विदेश मंत्री एस जयशंकर बीते बुधवार को उन अमेरिकी सांसदों से भी नहीं मिले, जिन्होंने कश्मीर मसले पर भारत की आलोचना की थी। साफ है, जिन सरकारों से हमारी कूटनीतिक व सामरिक साझेदारी है, वे हमें पूरी तवज्जो दे रही हैं। वे नहीं चाहती कि भारत से उनके रिश्ते खराब हों। इन देशों को हमारे धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने, मानवाधिकार संस्थाओं और सांविधानिक प्रावधानों पर पूरा विश्वास है। हां, कुछ गर-सरकारा, मानवाधिकार या सामाजिक संगठन ताखा नजरा स हम जरूर देख रहे हैं, पर इसका हमारी छवि पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ेगा।
दुनिया में कहीं नहीं इस मुद्दे का असर